5 दिन पहले
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- सावन महीने के शुक्लपक्ष की पांचवी तिथि को मनाई जाती है गोस्वामी तुलसीदास जयंती
सावन महीने के शुक्लपक्ष की सातवीं तिथि पर गोस्वामी तुलसीदास की जयंती मनाई जाती है। सोमवार, 27 जुलाई को तुलसीदासजी की जयंती है। गोस्वामी तुलसीदासजी का जन्म संवत् 1554 में हुआ था। कहा जाता है कि जन्म लेने के बाद तुलसीदास रोए नहीं बल्कि उनके मुंह से राम शब्द निकला। इसलिए बचपन में इनका नाम रामबोला था। ऐसा भी कहा जाता है कि जन्म से ही तुलसीदास जी के बत्तीस दांत थे।
- बड़े होने के बाद काशी में शेषसनातनजी के पास रहकर तुलसीदासजी ने वेद और उसके अंगों की पढ़ाई की। उन्होंने श्रीरामचरित मानस की रचना की थी। गोस्वामीजी ने 12 ग्रंथ लिखे। श्रीरामचरितमानस के बाद विनय पत्रिका उनका एक अन्य महत्वपूर्ण काव्य है।
मान्यता: श्रीराम और हनुमानजी ने दिए थे तुलसीदासजी को दर्शन
ऐसा माना जाता है कि तुलसीदासजी को भगवान श्रीराम और हनुमानजी ने दर्शन दिए थे। जब तुलसीदास जी तीर्थ यात्रा पर काशी गए तो राम नाम जप करते रहे। इसके बाद हनुमानजी ने उन्हें दर्शन दिए। इसके बाद उन्होंने हनुमानजी से भगवान राम के दर्शन की प्रार्थना की। हनुमान जी ने बताया कि चित्रकूट में श्रीराम मिलेंगे। इसके बाद मौनी अमावस्या पर्व पर तुलसीदास जी को चित्रकूट में भगवान राम के दर्शन हुए।
शिवजी के कहने पर लिखा श्रीरामचरित मानस
माना जाता है कि तुलसीदासजी को सपने में आकर शिवजी ने उन्हें आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य रचना करो। ये सपना देखते हुए वो उठ गए। तभी वहां भगवान शिव-पार्वती प्रकट हुए और उन्होंने कहा कि तुम अयोध्या में जाकर रहो और हिंदी में काव्य रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी रचना सामवेद के समान फलवती होगी। भगवान शिव की आज्ञा से तुलसीदासजी अयोध्या आ गए। इसके बाद संवत् 1631 को रामनवमी के दिन वैसा ही योग था जैसा त्रेतायुग में रामजन्म के समय था। उस दिन सुबह तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस लिखना शुरू की थी।
966 दिन में लिखा रामचरितमानस
दो साल, सात महीने और छब्बीस दिन में श्रीरामचरित मानस ग्रंथ पूरा हुआ। संवत् 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में श्रीराम विवाह के दिन इस ग्रंथ के सातों कांड पूरे हुए। इस तरह भारतीय संस्कृति को श्रीरामचरितमानस के रूप में बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रंथ मिला। रचना पूरी होते ही तुलसीदास जी ने सबसे पहले ये ग्रंथ शिवजी को अर्पित किया। इस ग्रंथ को लेकर तुलसीदासजी काशी गए और ये पुस्तक भगवान विश्वनाथ के मंदिर में रख दी। माना जाता है कि सुबह उस पर सत्यं शिवं सुंदरम लिखा हुआ था।
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