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23 मिनट पहले

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  • वायुपुराण में बताया है प्रेत पर्वत का महत्व, माना जाता है यहां श्रीराम और लक्ष्मण ने भी किया था पिता राजा दशरथ का श्राद्ध

आश्विन महीने के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक पितृपक्ष माना जाता है। वैदिक परंपरा और हिंदू मान्यताओं के अनुसार पितरों के लिए श्रद्धा से श्राद्ध करना बहुत ही पुण्यकर्म माना गया है। इसके लिए देवताओं ने मनुष्यों को धरती पर पवित्र जगह दी है। जिसका नाम गया है। यहां श्राद्ध और तर्पण करने से पितरों को तृप्ति मिलती है तथा उनका मोक्ष भी हो जाता है। महाभारत में वर्णित गया में खासतौर से धर्मराज यम, ब्रह्मा, शिव एवं विष्णु का वास माना गया है। वायुपुराण, गरुड़ पुराण और महाभारत जैसे कई ग्रंथों में गया का महत्व बताया है। कहा जाता है कि गया में श्राद्धकर्म और तर्पण के लिए प्राचीन समय में पहले विभिन्न नामों के 360 वेदियां थीं। जहां पिंडदान किया जाता था। इनमें से अब 48 ही बची हैं। वर्तमान में इन्हीं वेदियों पर लोग पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं। यहां की वेदियों में विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे और अक्षयवट पर पिंडदान करना जरूरी माना जाता है। इसके अलावा वैतरणी, प्रेतशिला, सीताकुंड, नागकुंड, पांडुशिला, रामशिला, मंगलागौरी, कागबलि आदि भी पिंडदान के लिए प्रमुख है। इन्हीं वेदियों में प्रेतशिला भी मुख्य है। हिंदू संस्कारों में पंचतीर्थ वेदी में प्रेतशिला की गणना की जाती है।

वायुपुराण में बताया है प्रेत पर्वत का महत्व गया शहर से लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर प्रेतशिला नाम का पर्वत है। ये गया धाम के वायव्य कोण में यानी उत्तर-पश्चिम दिशा में है। इस पर्वत की चोटी पर प्रेतशिला नाम की वेदी है, लेकिन पूरे पर्वतीय प्रदेश को प्रेतशिला के नाम से जाना जाता है। इस प्रेत पर्वत की ऊंचाई लगभग 975 फीट है। जो लोग सक्षम हैं वो लगभग 400 सीढ़ियां चढ़कर प्रेतशिला नाम की वेदी पर पिंडदान के लिए जाते हैं। जो लोग वहां नहीं जा सकते वो पर्वत के नीचे ही तालाब के किनारे या शिव मंदिर में श्राद्धकर्म कर लेते हैं। प्रेतशिला वेदी पर श्राद्ध करने से किसी कारण से अकाल मृत्यु के कारण प्रेतयोनि में भटकते प्राणियों को भी मुक्ति मिल जाती है। वायु पुराण में इसका वर्णन है। प्रेतशिला के मूल भाग यानी पर्वत के नीचे ही ब्रह्म कुण्ड में स्नान-तर्पण के बाद श्राद्ध का विधान है। जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका प्रथम संस्कार ब्रहमा जी द्वारा किया गया था। आचार्य नवीन चंद्र मिश्र वैदिक ने बताया कि श्राद्ध के बाद पिण्ड को ब्रह्म कुण्ड में स्थान देकर प्रेत पर्वत पर जाते हैं। वहां श्राद्ध और पिंडदान करने से पितरों को प्रेत योनि से मुक्ति मिलती है।

अकाल मृत्यु को प्राप्त आत्माओं का होता है श्राद्ध व पिण्डदान वायु पुराण के अनुसार यहां अकाल मृत्यु को प्राप्त लोगों का श्राद्ध व पिण्डदान का विशेष महत्व है। इस पर्वत पर पिंडदान करने से अकाल मृत्यु को प्राप्त पूर्वजों तक पिंड सीधे पहुंच जाते हैं जिनसे उन्हें कष्टदायी योनियों से मुक्ति मिल जाती है। इस पर्वत को प्रेतशिला के अलावा प्रेत पर्वत, प्रेतकला एवं प्रेतगिरि भी कहा जाता है। प्रेतशिला पहाड़ी की चोटी पर एक चट्टान है। जिस पर ब्रह्मा, विष्णु और महेश की मूर्ति बनी है। श्रद्धालुओं द्वारा पहाड़ी की चोटी पर स्थित इस चट्टान की परिक्रमा कर के उस पर सत्तु से बना पिंड उड़ाया जाता है। प्रेतशिला पर सत्तू से पिंडदान की पुरानी परंपरा है। प्रेतशिला के पुजारी मनोज धामी के अनुसार इस चट्टान के चारों तरफ 5 से 9 बार परिक्रमा कर सत्तू चढ़ाने से अकाल मृत्यु में मरे पूर्वज प्रेत योनि से मुक्त हो जाते हैं।

यहां से जुड़ा है श्रीराम, लक्ष्मण एवं सीता का नाम माना जाता है कि इस पर्वत पर श्रीराम, लक्ष्मण एवं सीता भी पहुंचकर अपने पिता राजा दशरथ का श्राद्ध किया था। कहा जाता है कि पर्वत पर ब्रह्मा के अंगूठे से खींची गई दो रेखाएं आज भी देखी जाती हैं। पिंडदानियों के कर्मकांड को पूरा करने के बाद इसी वेदी पर पिंड को अर्पित किया जाता है। यहां के पुजारी पं मनीलाल बारीक के अनुसार प्रेतशिला का नाम प्रेतपर्वत हुआ करता था, परंतु भगवान राम के यहां आकर पिंडदान करने के बाद इस स्थान का नाम प्रेतशिला हुआ। इस शिला पर यमराज का मंदिर, श्रीराम दरबार (परिवार) देवालय के साथ श्राद्धकर्म सम्पन्न करने के लिए दो कक्ष बने हुए हैं।

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